अभी ज्यादा समय नहीं बीता जब एक दिन यह ज्ञात हुआ के नई दिल्ली में स्थित तथाकथित अग्रसेन की बावली को अगरवाल समाज के हवाले कर दिया गया है क्योंकि उन्होंने ए एस आई से यह कहा था के इस बावली का निर्माण महाराजा अग्रसेन ने किया था जो अगरवाल समाज के संस्थापक थे. उनका कहना था कि इसलिए अगरवाल समाज बावली की देखभाल करना चाहता है – आखिर बावली उनके संस्थापक की यादगार जो है. ए एस आई ने विधिवत ढंग से एक एम ओ यू (इकरारनामा) तैयार किया दोनों पक्षों ने उस पर हस्ताक्षर किये और बावली अग्रवाल समाज के हवाले कर दी गयी.
अग्रवाल समाज को शायद उस शिलालेख से भी ऐतराज़ था जो बावली के बाहर ए एस आई ने लगाया हुआ था और ऐतराज़ वाजिब भी था अग्रवाल समाज का “विश्वास” है के बावली महाराज अग्रसेन की बनवाई हुई थी और शिलालेख पर, जहाँ तक हमें याद है, यह लिखा हुआ था के ‘उग्रसेन की बावली के नाम से मशहूर इस बावली का निर्माण सल्तनत काल की वास्तुकला का एक सुन्दर नमूना है’. इस तरह की बात ज़ाहिर है अस्वीकार्य थी और फ़ौरी तौर पर भूल सुधार की आवश्यकता थी. लिहाज़ा भूल सुधार दी गयी. अब जो नया शिलालेख वहां लगाया गया है उस पर साफ़ साफ़ लिखा है के “इस बावली का निर्माण अग्रवाल समुदाय के पूर्वज, राजा उग्रसेन, द्वारा किया गया था.” यह अलग बात है के शिलालेख पर अंग्रेजी में इस बात को ज़रा अलग ढंग से इस तरह कहा गया है “ कहा जाता है के इस बावली का निर्माण अग्रवाल समुदाय के पूर्वज, राजा उग्रसेन, द्वारा किया गया था.” (यह भी दिलचस्प बात है कि राजा का नाम कहीं ‘उग्रसेन’ तो कहीं ‘अग्रसेन’ लिखा जाता आया है.)
ज़ाहिर है जब राष्ट्रीय धरोहर का हिस्सा होने के बावजूद किसी इमारत की देख भाल की ज़िम्मेदारी सरकार द्वारा निजी इदारों को सौंप दी जायेगी तो इन इमारतों को अपना इतिहास नए संरक्षकों की मर्ज़ी के अनुसार ढालना तो पड़ेगा ही. सो तुगलक या लोदी काल की वास्तुकला का नमूना महाराजा उग्रसेन की स्थापत्य शैली का नमूना बन गया. महराजा उग्रसेन का ऐतिहासिक समय और काल स्थापित करने की आवश्यकता है, ऐसा किसी ने सोचा भी नहीं, ज़रुरत भी नहीं थी, क्योंकि महाराजा उग्रसेन का अस्तित्व विश्वास से जुडा है और किस की हिम्मत है कि विश्वास के सवालों को सत्य की कसौटी पर परखने की मांग करे, अगर कोई ऐसा दुस्साहस करे भी तो उसे बता दिया जाएगा के इस तरह की खोजों की न तो आवश्यकता है और न इस तरह के प्रश्न पूछना जायज़ है.
इस तरह की विचित्र घटनाएँ इस देश में अब काफी नियमित ढंग से होने लगी हैं, अयोध्या में एक प्राचीन इमारत को इस लिए ढहा दिया गया क्योंके कुछ लोगों का यह “विश्वास” था के भगवन राम का ठीक उसी स्थान पर जन्म हुआ था. यह बात के “इस विश्वास” को इतिहास की पैनी दृष्टि द्वारा परखना ज़रूरी है कभी बहस का मुद्दा बनने ही नहीं दिया गया. बलके इस तरह की बात करने वाले राष्ट्रद्रोही करार दिए गए और उन्हें सुझाव भी दिया गया के अगर वो “भारतीयों” के विश्वासों और मान्यताओं को अपना नहीं सकते तो बेहतर होगा के वो अपनी व्यवस्था कही और कर लें.
कुछ लोगों का आज भी विश्वास है के पृथ्वी चपटी है और सूर्य और चन्द्र को पृथ्वी पर प्रकाश फेलाने के लिए बनाया गया है. क्या आप ऐसे लोगों को कुछ भी समझा सकते हैं? वो जिनका विश्वास है के समस्त सृष्टि की रचना हफ्ते दस दिन में कर दी गयी थी और इंसान तो मिटटी का पुतला है आदि, आदि – क्या उनके साथ किसी भी ढंग के तर्कसंगत विचार विमर्श की कोई भी सम्भावना आपको नज़र आती है?
वो चीज़ें जो विश्वास के घेरे में ले आई जाएँ उन पर बहस नहीं हो सकती क्योंके विश्वास करने वाला तो कुछ और सुनने के लिए तैयार ही नहीं होता और वो इस लिए के उस के पास तो ब्रह्म सत्य है और इसका सबूत के वो ब्रह्म सत्य का ज्ञाता है केवल स्वयं उसका कथन होता हैं और इसलिए वो किसी और की बात सुनने को तैयार ही नहीं होता.
तथ्यों पर आधारित साक्ष्यों की बिना पर बात करना और विश्वास को तथ्यों से भी ज्यादा महत्व देना दो परस्पर विपरीत दृष्टकोण हैं. यह ऐसे परस्पर विरोधी विश्व दर्शन हैं जिनके बीच कोई सम्वाद संभव नहीं हैं.
वो सवाल जो आज हमारे सामने मुंह बाए खड़ा है वो यह है के क्यों आधुनिक राष्ट्र का सपना देखने और दिखाने वाला नेतृत्व इतनी आसानी से किसी ऐसे छुट भईये साधू की बातों में आ जाता है जिसका नाम आज से दस दिन पहले दस गाँव के बाहर कोई नहीं जानता था. वैसे अगर वो विश्व विख्यात महात्मा भी होता तब भी क्या उसकी बे सर पैर की बातों पर विश्वास और अमल करना किसी तरह के हालात में ज़रूरी होता
१००० टन सोना एक ऐसे राजा के महल में कैसे हो सकता है जिसका नाम उस समय के अवध के ३० बड़े ज़मींदारों की फेहरिस्त में भी नहीं आता? यह कैसा सोना है जो अगर दीवाली से पहले खोद कर नहीं निकाल लिया गया तो लुप्त हो जाएगा.
इस बात से किसी को एतराज़ नहीं हो सकता के पुरातत्व विभाग को खुदाई करनी चाहिए ताके हमारे अतीत के बुहत से उलझे सवालों को सुलझाने में मदद मिल सके, मगर यह फैसला के कहाँ खुदाई की जानी है और कब, इसका फैसला ऐतिहासिक तथ्यों की रौशनी में पुरातत्ववेत्ताओं और विशेषज्ञों द्वारा और इस काम के लिए स्थापित की गयी संस्था ए एस आई द्वारा लिया जाना चाहिए, महंतों, मौलवियों, पादरियों, साधुओं, बाबुओं, आसारामों निर्मल बाबाओं या उनके दबाव में आ कर आदेश जारी करने वाले नेताओं और उनके चाटुकारों द्वारा नहीं.
यह तीनों मामले, उग्रसेन की बावली, बाबरी मस्जिद और १००० टन सोने की यह अनोखी तलाश जो हमारी समस्त समस्याओं का चुटकी बचाते में निवारण कर देगी और जिसने रातों रात सारे देश को संसार भर के संचार साधनों का चहेता बना दिया है, ऐसे मामले हैं जिन्हें विशेषज्ञों के हवाले करना चाहिए था मगर हमने नहीं किया. इन तीनों मामलों में हमने प्रतिगामी शक्तियों के सामने घुटने टेक दिए. क्या कोई हमें बताएगा के देश को प्रगति और आधुनिकता के शिखर पर स्थापित करने की यह कौन से रणनीति है?