पिछले दिनों भारत ने संयुक्त राष्ट्र मानव अधिकार कौंसिल द्वारा बाल विवाह और जबरन विवाह के खिलाफ पेश किये गए प्रस्ताव का सह प्रायोजक बनने से इनकार कर दिया.यह प्रस्ताव संयुक्त राष्ट्र संघ में अपने किस्म का पहला वैश्विक प्रस्ताव था जिसमे बाल विवाह, कम आयु में विवाह और जबरन विवाह के पूर्णतः उन्मूलन और इसे 2015 के बाद अंतर्राष्ट्रीय विकास के अजेंडे में लाने की बात कही गयी थी.
गनीमत यह है कि ये प्रस्ताव सर्वसहमति से पास हों गया और भारत के इसका विरोध करने की नौबत नहीं आई जैसा कि कुछ अख़बारों ने लिखा था. लेकिन फिर भी ऐसे प्रस्ताव का सह प्रायोजन ना करना भारत की बाल विवाह के खिलाफ मुहीम पर कई प्रश्न खड़े करता है जिसका जवाब उसको देना होगा.
भारत दुनिया भर में बाल विवाह की राजधानी की तौर पर जाना जाता है. दुनिया भर में हुए 6 करोड बाल विवाहों में से 40% बाल विवाह हिंदुस्तान में हैं यानेकि 2.4 करोड़ बाल विवाह हमारे देश में हुए है जो संख्या के हिसाब से दुनिया भर में सबसे अधिक हैं भारत में 20 से 24 वर्ष आयुवर्ग की महिलाओं के बीच हुए सर्वे के नतीजो के अनुसार 46% महिलाओं की शादी 18 वर्ष की उम्र से पहले कर दी गयी थी और 18% की 15 वर्ष से पहले.
हिन्दुस्तान में अब बाल विवाह के खिलाफ एक बेहतरीन क़ानून है पर उसके आधे अधूरे और बेमन से पालन के कारण आज भी ये समस्या विकराल रूप धारण करी हुई है और शायद यही कारण है कि भारत ने इस प्रस्ताव का सह प्रायोजन नहीं किया. अगर वो इसका सह प्रायोजन करता तो पूरी दुनिया की निगाहे भारत पर होती कि वो बाल विवाह कानून का कितनी सख्ती से पालन कर रहा है.
बाल विवाह अपने आप में मानव अधिकार का हनन तो है ही पर साथ ही साथ ये कई अन्य बाल अधिकारों का भी हनन करता है. इसके कारण बच्चों के शिक्षा, स्वास्थ्य और खेलने कूदने के अधिकारों का भी हनन होता है और उन्हें समय से पहले ही एक व्यस्क का जीवन जीने पर मजबूर कर दिया जाता है. कुल मिलाकर देखें तो यह मानवता के नाम पर एक बहुत बड़ा कलंक है.
आंकडो की माने तो पिछले पन्द्रह सालों में बाल विवाह में 11% की गिरावट आई है, जो सराहनीय है पर विषय की गंभीरता को देखते हुए नाकाफी है. भारत का इस प्रस्ताव का सह प्रायोजन ना करना चौकाने वाला है क्योंकि हाल ही में हमने बाल विवाह के खिलाफ कानून में तब्दीली लाकर इसे और सख्त बनाया है और जल्द ही हमारा देश इस सामाजिक बुराई के खिलाफ लड़ने के लिए एक राष्ट्रीय योजना बनाने वाला है. भारत के साथ साथ एशिया के अधिकतर देशों (मालदीव को छोडकर ) ने इस प्रस्ताव का सह प्रायोजन नहीं किया.
कुछ अख़बारों ने सरकारी अफसरों से भारत के इस प्रस्ताव के सह प्रायोजन ना करने का कारण पूछा तो उनके जवाब काफी हास्यास्पद थे. एक सरकारी अफसरान के अनुसार इस प्रस्ताव में कम आयु में विवाह को स्पष्टतः परिभाषित नहीं किया गया है. ये बात कुछ गले नहीं उतरती क्योंकि महज ये कारण था तो भारत इसका स्पष्टीकरण मांग सकता था और जरूरत पड़ने पर इसमे बदलाव की मांग भी कर सकता था. इस प्रस्ताव के सह प्रायोजन ना करने के कारण भारत की पूरी दुनिया भर में जो फजीहत हुई है वो काफी शर्मनाक है. खासकर तब जब दक्षिणी सूडान, इथोपियाए, चेड और ग्वातामाला जैसे देशों ने इसका समर्थन किया है. इन देशों में भी बाल विवाह की समस्या व्यापक रूप से मौजूद है पर वहां की आर्थिक व्यवस्था भारत से बहुत कमजोर है, इसके बावजूद भी इन देशों ने बाल विवाह के खिलाफ जो दृढ़ संकल्प दिखाया है वह सराहनीय है.तकनिकी रूप से सह प्रायोजन ना करना कोई बहुत बड़ा मुद्दा नहीं है पर अगर भारत इसका सह प्रायोजन करता तो उसके पास पूरी दुनिया के सामने एक मिसाल पेश करने का मौका था जो उसने गँवा दिया. इस विषय पर कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि इस प्रस्ताव का सह प्रायोजन करके भारत सरकार चुनावो से ठीक पहले एक समुदाय विशेष को नाराज नहीं चाहती थी जो कम आयु के विवाहों का समर्थन कर रहे हैं.
अंतर्राष्ट्रीय मंच पर ऐसा भारत ने पहली बार नहीं किया है. बाल अधिकार समझौते पर आज भी भारत ने अनुच्छेद 32 द्वारा इस समझौते एक शर्त लगा रखी है जिसमे उसका कहना है कि वो अपने देश से बाल मजदूरी खत्म नहीं कर सकता क्योंकि यहाँ गरीबी और अशिक्षा बहुत है. यह शर्त हमारे देश ने 1992 में लगाई थी और हमारा देश आज तक इस पर कायम है. पिछले दो दशको में हिन्दुस्तान ने औसतन प्रतिवर्ष 5.7% से लेकर 10.5% की दर से विकास करके पूरी दुनिया में अपनी आर्थिक ताकत का डंका बजाया है. पूरी दुनिया में एक बड़ी उभरती आर्थिक ताकत के रूप में अपनी छवि स्थापित करने के बाद अपनी गरीबी की दुहाई देना किसके गले उतरेगा. पूरी दुनिया में सभी देशों ने बाल अधिकार समझौते का समर्थन किया है जिनमे वो देश भी शामिल है जो आर्थिक विकास की दृष्टि से भारत से बहुत पीछे है, लेकिन आर्थिक कमजोरी ने इन देशों को बाल मजदूरी के खिलाफ लड़ाई में कमजोर नहीं किया, जहाँ तक अशिक्षा के बहाने का सवाल है तो सरकार को यह सवाल करना खुद से करना चाहिए कि आज़ादी के 66 साल बाद भी देश में इतने व्यापक स्तर पर अशिक्षा क्यों है. कोठारी कमीशन ने साठ के दशक में सकल घरेलु उत्पाद का 6% शिक्षा पर खर्च करने का सुझाव दिया था जो आज तक अमल में नहीं लाया जा सका. भारत इक्कीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक में भी शिक्षा पर अपने सकल घरेलु उत्पाद का 4: से ज्यादा खर्च नहीं करता जबकि कोंगो जैसे आर्थिक रूप से तथाकथित कमजोर देश भी शिक्षा पर लगभग 7% खर्च कर रहे हैं.
हिंदुस्तान बहाने कुछ भी दे पर सच्चाई ये हे कि वह अपने देश में बच्चों के अधिकारों के प्रति प्रतिबद्ध नहीं है.